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Saturday, June 12, 2010

राजा के दिए ज़ख्म पर 3जी का मरहम

दूरसंचार विभाग से 3जी और ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली कम्पनियों को भले ही अपनी जेब ढीली करनी पड़ी हो, लेकिन इससे सरकार का खजाना जरूर भर गया। वित्त मंत्री ने नीलामी के जरिये जहाँ 35-40 हजार करोड़ रुपए मिलने का अनुमान लगाया था, वहीं इससे सरकार को 1 लाख करोड़ से भी अधिक का राजस्व प्राप्त हुआ है। अब सरकार इस राशि के इस्तेमाल से राजकोषीय घाटे को कम करने पर विचार कर रही है। लेकिन गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह आमदनी साल 2008 में हुई 2जी नीलामी की भरपाई मात्र ही है। वैसे नीलामी से इकठ्ठा हुई राशि की एक वजह यह भी है कि भारत की तेजी से बढती आबादी में टेलिकॉम कम्पनियों को सुनहरा भविष्य नज़र आ रहा है, यही वजह है की स्पेक्ट्रम नीलामी से मिली राशि सरकार की उम्मीद से कहीं ज्यादा है। स्पेक्ट्रम हासिल करने की होड़ में शामिल कुल 11 कम्पनियों में से जहाँ अमेरिकी कम्पनी क्वालकॉम ने सरकार को सबसे अधिक 4912 करोड़ का भुगतान किया है, वहीं दूसरी टेलिकॉम कम्पनियां भी पीछे नहीं हैं।

फिलहाल उम्मीद से कहीं अधिक हुई आमदनी से सरकार को राजकोषीय घाटा कम करने में मदद मिले या न मिले लेकिन साल 2008 में दूरसंचार मंत्री ए राजा द्वारा औने-पौने दामों में की गई 2जी स्पेक्ट्रम नीलामी का जख्म भरने में मदद जरूर मिलेगी। इस नीलामी से सरकार ने करीब 70 हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया था। कुल मिलाकर सरकार जहाँ 3जी और ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस से होने वाली आय का अनुमान 70 हज़ार करोड़ लगा रही है, वह वास्तव में मृगमरीचिका के समान है। क्योंकि 2008 की नीलामी से होने वाले वास्तविक घाटे को जोड़ा जाए तो सरकार न नफा- न-नुकसान वाली स्थिति में ही है। लेकिन फिर भी खुद को तसल्ली देने और अपने काबिना मंत्री कि कारगुजारियों पर पर्दा डालने के लिए सरकार इस नीलामी से मिलने वाली राशि को बड़ी उपलब्धि बता रही है। खैर सरकार चाहे जो कहे लेकिन साल 2008 की नीलामी में राजा ने जहाँ अपनी मनमानी से टेलिकॉम कम्पनियों को लाभ पहुँचाया वहीं सरकारी खजाने को चूना लगाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ये राजा की ही मेहरबानी थी की कई कम्पनियों ने बेहद सस्ती कीमत पर लाईसेंस पाकर अपने विदेशी साझेदारों को हिस्सेदारी बेचकर खूब मुनाफा कमाया। अब सरकार भले ही राजा की गलतियों पर पर्दा डालते हुए सरकारी खजाने के भरने का राग अलाप रही है, लेकिन सच्चाई पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। राजा के कारनामों पर सरकार की प्रतिक्रिया देखकर तो यही लगता है की वो राजा की खामियों को छुपाने के लिए उम्मीद से ज्यादा आमदनी का ढिंढोरा पीट रही है, जबकि सच्चाई कुछ और ही है। फिलहाल इस पूरे मामले में सरकार के लिए ये पंक्तियाँ बिलकुल मुफीद हैं "इक बरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है, दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है..."

Wednesday, May 19, 2010

हर गिरावट में तलाशें निवेश के मौके


यूरोप कर्ज संकट के बाद से ही लगातार दबाव झेल रहे वैश्विक बाज़ारों का सीधा असर भारतीय बाज़ार पर भी साफ़ दिख रहा है। यही वजह है कि साल 2010 के 5 महीने बीतने के बाद भी सेंसेक्स 18 हज़ार के मनोवैज्ञानिक आंकड़े को छूने में नाकामयाब रहा है। हालांकि इसके पीछे कुछ और कारण भी हो सकते हैं, लेकिन मुख्य वजह अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों कि अस्थिरता ही है। ग्रीक, स्पेन और पुर्तगाल जैसे देशों में फैले कर्ज संकट के चलते उनकी ग्रेडिंग घटी, जिससे न सिर्फ यूरोपीय बाज़ार टूटे, बल्कि इसका सीधा असर एशियाई बाजारों पर भी देखने को मिला। इस दौरान विदेशी संस्थागत निवेशकों का उभरते बाजारों पर भरोसा कम होने की वजह से जमकर बिकवाली देखी गई, जिससे रफ़्तार पकड़ने से पहले ही बाजारों को ब्रेक लग गया। हालांकि तेज़ी-मंदी के इस दौर में बाज़ार को कुछ हद तक घरेलू संस्थागत निवेशकों का सहारा जरूर मिला, लेकिन यह बाज़ार को गति देने के लिए नाकाफी था। इस बीच रिलायंस विवाद जैसे अहम् फैसले आने से बाज़ार को कुछ हद तक मजबूती मिली, लेकिन वैश्विक बाज़ारों का समर्थन न मिलने के कारण बाज़ार में मुनाफावसूली ही हावी रही।


इसी बीच जर्मनी द्वारा सरकारी बांड्स और शेयरों की शार्टसेलिंग पर रोक लगाये जाने की ख़बरों ने यूरोपीय बाजारों समेत भारतीय बाज़ार को भी बड़ा झटका दिया, जिससे सेंसेक्स एक ही दिन में 467 अंकों की गिरावट के साथ बंद हुआ. बाज़ार की इस बड़ी गिरावट से जहाँ छोटे निवेशक सहमे हुए हैं, वहीँ बड़े निवेशक हर गिरावट में निवेश के मौके तलाशने में जुट गए हैं। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोप संकट का ज्यादा असर भारत पर नहीं पड़ेगा और वैसे भी ग्रीक और यूनान जैसे देशों को आर्थिक संकट के भंवर से निकालने के लिए 1 लाख करोड़ डालर का आर्थिक पैकेज भी जारी किया गया है. लेकिन वहीँ दूसरी और कुछ अर्थशास्त्रियों की राय में यह पैकेज नाकाफी है. इसके साथ ही चाइना द्वारा अर्थव्यवस्था की रफ़्तार कम किए जाने के लिए अपनाए जा रहे उपायों के चलते भी वैश्विक हालात बेहतर नज़र नहीं आ रहे। कहने का मतलब है की वर्तमान वैश्विक हालातों को देखते हुए यहाँ से बाज़ार में 10-15 फीसदी की गिरावट आ सकती है. ऐसे में निवेशकों को बाज़ार की हर गिरावट पर निवेश के बेहतर मौके तलाशने चाहिए। सही मायनों में छोटे निवेशकों के लिए लम्बी अवधि में निवेश का सही मौका (इंट्री लेवल) गिरावट के समय में ही मिलता है। ऐसे में वर्तमान दौर में चल रहा करेक्शन निवेशकों को लम्बे समय में बेहतर मुनाफा दिला सकता है। जरूरत है तो बस सही रणनीति और धैर्य के साथ बाज़ार को वाच करने की।

Wednesday, February 24, 2010

बंगाल के चुनावी ट्रैक पर दौड़ी 'ममता' मेल

यूपीए सरकार में लगातार अपना दूसरा रेल बजट पेश करने वाली ममता बनर्जी ने लोकलुभावन बजट से जनता को खुश कर दिया। पिछले 7 सालों से यात्री किराए में नहीं की गयी बढ़ोत्तरी को इस बार भी जारी रखते हुए ममता ने लालू की तर्ज पर कई बड़ी घोषणाएं कीं। लेकिन इन सबके बीच अपने पूरे बजट भाषण के दौरान ममता बंगाल पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान दिखीं।

बंगाल पर बरसी ममता की ममता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था की उनकी हर दूसरी घोषणा किसी न किसी रूप में बंगाल से जुडी थी. बजट में मिली 54 नयी ट्रेनों में से 16 बंगाल के खाते में गयी हैं, वहीँ 28 पैसेंजर ट्रेनों में से 5 गाड़ियाँ भी बंगाल को ही मिली हैं. बात सिर्फ ट्रेनों तक ही सीमित नहीं है, अगर दूसरी घोषणाओं की बात करें तो उनमें भी ममता का बंगाल मोह साफ़ नज़र आता है. टाटा के नैनों प्लांट को सिंगूर से सानन्द भेजने वाली ममता ने सिंगूर की जनता को जहाँ रेल कोच फैक्ट्री के रूप में मरहम लगाने की कोशिश की, वहीँ खड़गपुर की जनता को लुभाने के लिए आदर्श स्टेशन के साथ ही रेल रिसर्च सेंटर की सौगात भी दे दी. लेकिन बंगाल पर मेहरबान ममता के पिटारे से अभी और घोषणाएं होना बाकी थीं. बजट में घोषित 4 रेल अकादमियों में से एक कोलकाता में, इसके साथ ही हावड़ा-सियालदह को आपस में जोड़ने और चितरंजन कारखाने कि क्षमता बढाए जाने जैसी और भी कई बड़ी घोषणाएं बंगाल के नाम रहीं. हालांकि ऐसा नहीं है कि ममता कि ममता सिर्फ बंगाल पर ही बरसी, बल्कि दूसरे प्रदेशों को भी कुछ न कुछ मिला. लेकिन इन सबके बीच एक बात जो स्पष्ट नज़र आई, वो यह कि लगभग हर प्रोजेक्ट में पश्चिम बंगाल हिस्सेदार जरूर बना।

कुल मिलाकर ममता का बंगाल पर सुविधाओं कि बरसात करने का मकसद राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं, या कुछ और। लेकिन बजट में बंगाल कि जनता को दी गयी सौगात से यह बजट कम और तृणमूल कांग्रेस का चुनावी घोषणा-पत्र अधिक नज़र आया.

Sunday, January 24, 2010

बजट तक गुलजार रहेगा बाज़ार


पिछला हफ्ता बाज़ार के लिए बहुत ही निराशाजनक रहा। ग्लोबल मार्केट से मिले ख़राब संकेतों के चलते ऍफ़आईआई ही नहीं बल्कि घरेलू संस्थागत निवेशकों और म्युचुअल फंड्स ने भी जमकर बिकवाली की। नतीजा दो दिनों में ही मार्केट 600 पॉइंट गिरकर बेक फुट पर आ गया। हालांकि इस दौरान कुछ दिग्गज कम्पनियों के तिमाही नतीजे भी बेहतर रहे लेकिन इनसे भी बाज़ार को कुछ ख़ास सहारा मिलता नज़र नहीं आया। बाज़ार की इस तरह से अचानक बदली चाल को देखकर निवेशकों में एक बार फिर बड़े करेक्शन की अटकलबाजियां शुरू हो गयी हैं। कोई इसे टेक्नीकल करेक्शन मान रहा है, तो कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि बाज़ार में लम्बी गिरावट भी आ सकती है। हालांकि ऐसे समय में बाज़ार के पंडितों का अपना अलग-अलग मत है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर यहाँ से बाज़ार का ऊंट किस करवट बैठेगा?
महंगाई के चलते पहले से ही राजनीतिक विरोध झेल रही सरकार भी बाज़ार को लेकर चिंतित नज़र आ रही है। और हो भी क्यों ना, आखिर बाज़ार किसी भी देश कि अर्थव्यवस्था कि प्रगति का सूचक जो है। ऐसे में इसी महीने आने वाली आरबीआई की क्रेडिट पोलिसी में महंगाई को नियंत्रित करने का भी भारी दबाव रहेगा। क्या बाज़ार से अतिरिक्त नकदी खींचने के लिए प्रमुख ब्याज दरों में इजाफा होगा? अगर ब्याज दरें बढाई गयीं तो बैंकिंग सेक्टर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ये सवाल सिर्फ हमारे ही नहीं बल्कि सरकार के दिमाग में भी कौंध रहे होंगे। ऐसे में इनसे निपटने के लिए सरकार कम से कम बजट तक तो ब्याज दरें बढाने का रिस्क नहीं लेगी। जहाँ तक महंगाई का सवाल है तो जनता आज से नहीं बल्कि काफी समय से इसे झेलती आई है। यू पी ऐ सरकार अपनी दूसरी पारी के पहले बजट में किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहेगी। इसलिए बजट के पहले बाज़ार में किसी भी तरह की गिरावट की आशंका कम ही है। हाँ बजट के बाद बाज़ार का मूड क्या होगा, इसका अंदाजा तो बजट में हुई घोषणाओं के बाद ही लगेगा। फिलहाल बजट तक निवेशकों को डरने की जरूरत नहीं है।

Wednesday, August 5, 2009

आख़िर क्यों महँगी हो रही मिठास ?



सुबह उठते ही चाय की चुस्कियों से लेकर रात के खाने तक, शायद ही हम चीनी के इस्तेमाल के बिना रहते हों, लेकिन अब हमें यह आदत जल्द बदलनी पड़ सकती है। इसका कारण साफ़ है कि जिस तरह से चीनी के दाम आसमान छू रहे हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि हाल-फिलहाल इससे राहत मिलने कि उम्मीद कम ही है। ऊंचे तबके से लेकर निम्न तबके तक लगभग सभी अपने दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में चीनी का उपयोग अवश्य करते हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से इसके बदले तेवरों के चलते लोगों को मिठास का एहसास कराने वाली चीनी का स्वाद कड़वा होता जा रहा है।


अगर हम वर्ष 2009 के दौरान चीनी के दामों में आई तेज़ी पर नज़र डालें तो खुदरा बाज़ार में जनवरी में इसकी कीमत 21 रुपये/किलो थी, हालांकि यह कीमत भी सामान्य दाम से लगभग 4 रुपये/किलो ज्यादा थी, लेकिन इसके बावजूद लोगों ने चीनी खाना कम नहीं किया। बढती मांग को देखते हुए चीनी के भाव और चढ़ने लगे और मार्च आते-आते इसने 25 रुपये/किलो का स्तर छू लिया। अब लोगों को और सरकार को भी लगने लगा कि चीनी ने तेज़ी कि राह पकड़ ली है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने अपनी ओर से चीनी के दामों में लगाम लगाने कि कोशिश न कि हो, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीनी के दामों में आए उछाल कि वजह से इसपे काबू पाना सरकार के बस में भी नहीं रहा। खैर जैसे-तैसे 2 महीने का वक्त गुजरा लेकिन चीनी के दाम बेकफुट पर आने के बजाय फ्रंटफुट कि ओर बढ़ने लगे और मई आते-आते चीनी ने 27 रुपये/किलो के आंकडे को छू लिया। दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहे चीनी के दामों ने इस बार सरकार के भी कान खड़े कर दिए और और सरकार ने आनन-फानन में चीनी पर "स्टॉक होल्डिंग और टर्नओवर लिमिट लगाने के साथ ही इसके वायदा कारोबार पर भी रोक लगा दी।


चीनी के दामों को नियंत्रित करने के लिए उठाये गए इन क़दमों से सरकार को ही नहीं बल्कि आम जनता को भी लगने लगा कि अब शायद चीनी फिर से आम आदमी कि पहुँच में होगी, लेकिन नतीजा फिर वही "ढाक के तीन पात"। स्टॉक होल्डिंग लिमिट बंद किए जाने के बाद भी राज्य सरकारों द्वारा इसकी अनदेखी कि जा रही है और नतीजा ये है, कि देश में अब तक सिर्फ़ 11 राज्यों ने ही इस फैसले को लागू किया है। इसमे सबसे चिंता की बात ये है कि चीनी कि सर्वाधिक खपत वाले बड़े राज्य उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश ने भी इसे लागू नहीं किया है।


चीनी के बढ़ते दामों के लिए केन्द्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी दोषी हैं और यही वजह है कि जून में चीनी के दाम 30 रुपये/किलो के स्तर पर पहुँच गए। अर्थशास्त्र कि भाषा में अगर बात करें तो चीनी कि कीमतों में आई तेज़ी का सबसे बड़ा कारण मांग और उत्पादन में भारी अन्तर है, उपभोक्ता मांग के अलावा फ़ूड प्रोसेसिंग, फास्ट फ़ूड तथा रेस्टोरेंट आदि में भी चीनी कि मांग तेज़ी से बढ़ी है, इसके अलावा ग्रामीण परिवेश में भी अब तेज़ी से बदलाव आ रहा है और लोग गुड कि बजाय शक्कर ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। इन सबकी तुलना में यदि उत्पादन कि बात करें तो वह साल-दर-साल घटा है। इसके अलावा मौसम भी शक्कर के दामों में आई तेज़ी का प्रमुख कारण है। चीनी के मुख्य स्त्रोत गन्ना को काफ़ी पानी और मेहनत कि जरूरत होती है, लेकिन पिछले कुछ समय से गन्ना किसानों को मौसम कि बेरुखी का सामना भी करना पड़ा है, जिसके चलते अब किसान भी गन्ने कि खेती करने से कतराने लगे हैं। इन सबके अलावा चीनी के दामों में तेज़ी का एक कारण कहीं न कहीं राजनीती भी है। केन्द्र और राज्य सरकारों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण राज्य सरकारें गन्ने का का दाम बेतुके ढंग से बढ़ा रही हैं, जिसके चलते चीनी मिलों को गन्ना खरीदने में दिक्कत हो रही है, फलस्वरूप गन्ने का रकवा घट रहा है और किसान कम पैदावार कर रहे हैं।

चीनी के बढ़ते दाम को नियंत्रित करने के लिए सरकार काफ़ी हाथ-पैर भी मार रही है, और यही वजह है कि लगभग 17.5 लाख टन रा- शुगर आयात की जा चुकी है और १५ अगस्त तक यह आंकडा लगभग 18.5 लाख टन पहुँचने कि उम्मीद है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चीनी के 25 साल के उच्चतम स्तर पर पहुँचने के कारण भी इसकी कीमतों में तेज़ी आई है। इसके साथ ही जानकारों के मुताबिक त्योहारी सीज़न में मांग बढ़ने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमतें तेज़ रहने कि वजह से आने वाले 3 महीनों में चीनी के दाम और बढ़ सकते हैं। वैश्विक हालातों और देश में मौसम की बेरुखी देखकर तो यही लगता है, कि आने वाले समय में चीनी कि मिठास खटास में बदलने वाली है और ऐसे में अमिताभ और तब्बू अभिनीत फ़िल्म का ये गाना सटीक बैठता है, कि "चीनी कम है...चीनी कम...थोडी-थोडी तुझमें है, थोडी-थोडी कम-कम...

Thursday, July 30, 2009

महंगाई दर पाताल में, कीमतें आसमान में


पिछले कुछ समय से एक बात है, जो लोगों के गले नहीं उतर रही, और उतरे भी कैसे...आख़िर लोगों की समझ में ये नहीं आ रहा है, कि आर्थिक और सांख्यिकी विभाग द्वारा हर सप्ताह जारी किए जाने वाले महंगाई दर के आंकडे तो ऋणात्मक हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ यदि खाद्यान और रोजमर्रा कि जरूरतों वाली वस्तुओं पर नज़र डालें तो उनकी कीमतें लगातार आसमान छू रही हैं। भले ही ये बात अर्थशास्त्रियों और आर्थिक क्षेत्र के जानकारों को समझ आती हो, लेकिन कम से कम ये आंकडे एक आम आदमी कि समझ से तो परे हैं।
लगातार सात महीनों से थोक मूल्य सूचकांक शून्य से नीचे बना हुआ है, हालांकि महंगाई दर के इस तरह के आंकडे देखकर सरकार और रिज़र्व बैंक भी कम चिंतित नहीं हैं, लेकिन इन आंकडों के उलट दूसरी तरफ़ जो हकीकत है, उससे देश का हर आदमी परेशान है और यही सोच रहा है, कि आख़िर हर सप्ताह जारी किए जाने वाला महंगाई दर का आंकडा तो लंबे समय से शून्य से भी नीचे बना हुआ है, फिर आख़िर वस्तुओं के दाम क्यों नहीं कम हो रहे? वाकई ये सवाल एकबारगी हर किसी के मन में उठाना लाजिमी है।
क्या वाकई महंगाई दर कम हो रही है, या ये सिर्फ़ जनता को दिखाने के लिए आंकडों कि बाजीगरी है, क्योंकि पिछले कुछ समय से जिस तरह से खाद्य पदार्थों के दामों में तेज़ी आई है, उससे जनता को राहत मिलती नहीं दिख रही है।
अब सवाल यह उठता है, कि आख़िर इस विसंगति कि वजह क्या है? क्या सरकार जानबूझकर जनता को अंधेरे में रखना चाहती है, या इन आंकडों में सच्चाई है। वैसे जहाँ तक इस विसंगति कि बात कि जाए तो इसके पीछे जो ठोस कारण नज़र आता है, वो है महंगाई दर को मापने का सूचकांक।
भारत में महंगाई दर को मापने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का सहारा लिया जाता है, तथा इसके आधार पर हर सप्ताह आंकडे जारी किए जाते हैं। इस सूचकांक का इस्तेमाल उन उत्पादों कि कीमत स्तर में परिवर्तन आंकने के लिए किया जाता है, जिनका कारोबार थोक बाजारों में होता है, जबकि अन्य कई देशों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर महंगाई दर कि गड़ना की जाती है। आंकडों और वस्तुओं के मूल्य में आई विसंगति का सबसे बड़ा कारण यही है कि थोक मूल्य सूचकांक में मात्र ४३५ वस्तुओं को शामिल किया गया है, जबकि उपभोक्ता इससे कहीं अधिक वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं। अतः इस आधार पर या तो सभी उपयोगी वस्तुओं को इसमें शामिल किया जाए, या फिर इसकी जगह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति कि गड़ना कि जाए। थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट की सबसे बड़ी वजह है, ईंधन और मेनुफक्च्रिंग, और यही कारण है, की महंगाई दर के आंकडे तो कम हैं, लेकिन वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं।
हालांकि सबसे विचारणीय प्रश्न यह है, कि महंगाई दर के ऋणात्मक होने के बावजूद रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति कि समीक्षा में कोई ठोस उपाय नहीं किए। सिर्फ़ अनुमान लगाया है कि २०१० में यह ५ फीसदी के करीब आ जायेगी। अब देखना है, कि रिज़र्व बैंक का यह अनुमान कितना सटीक बैठता है। हालांकि आम जनता को मुद्रास्फीति के आंकडों से कोई मतलब नहीं है, उसे तो बस आसमान छूती कीमतों की चिंता है। अगर सरकार उसे काबू में कर ले तो जनता को अवश्य राहत मिलेगी।

Tuesday, April 7, 2009

जूता मारकर भी जीते इनाम


क्या आपको याद है 14 दिसम्बर की वो प्रेस कांफ्रेंस जब एक इराकी पत्रकार ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ़ जूता उछाला था। कुछ दिनों पहले ही चीनी प्रधानमंत्री पर भी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण के दौरान एक युवक ने उन्हें निशाना बनाते हुए जूता फेंका था. अगर आप किसी कारणवश वो लम्हा नहीं देख पाये तो इसका मलाल अपने दिल से निकाल दीजिये, क्योंकि ठीक उसी का एक्शन रिप्ले हमारे देश में भी दिखा। फर्क सिर्फ़ इतना था की वहां अंकल सैम थे और यहाँ हमारे होम मिनिस्टर साहब।

वाकया उस समय हुआ जब एक पत्रकार वार्ता के दौरान एक निजी समाचार पत्र के वरिष्ठ संवाददाता द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में मिनिस्टर साहब संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए और उसका खामियाजा जूते के रूप में उनके सामने आया।
हालांकि एक पत्रकार की दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी तरह के भावावेश में आकर इस तरह का कदम उठाना निंदनीय है, लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि जब जनता के प्रतिनिधि हमारे विधायक और सांसद ही सदन में एक दूसरे पर जूतम पैजार शुरू कर देते हैं तो भावनाओं में आकर एक पत्रकार को अपने आप पर काबू रखना कितना मुश्किल हुआ होगा, और इसी का परिणाम है जो इतना बड़ा हादसा हो गया। खैर जो हुआ सो हुआ, लेकिन हद तो तब हो गई जब एक विशेष सम्प्रदाय से सम्बद्ध रखने वाले राजनैतिक दल के बड़े नेता ने गृह मंत्री पर जूता फेंकने वाले पत्रकार को सम्मानित करने का निर्णय ले लिया। जी हाँ इस राजनैतिक दल के वरिष्ठ नेता ने कथित पत्रकार के साहस और बहादुरी की प्रशंसा करते हुए उसे 2 लाख रुपये नगद पुरस्कार देने की घोषणा कर दी।
अब इस पुरस्कार की घोषणा ने एक नए सवाल को जन्म दे दिया है। वो ये की कहीं ऐसा तो नहीं की पत्रकार को जूता फेंकने की सुपारी दी गई हो। जिसके एवज में इस घटना को अंजाम दिया गया है, क्योंकि जो काम पत्रकार द्वारा किया गया है, वो कम से कम इतना महान तो नहीं है की इसके लिए उसे इनाम दिया जाए।
खैर, कारण चाहे जो भी हों, लेकिन जूते पर इनाम मिलने की परम्परा पुरानी है, ये बात अलग है की एक जगह जूते चुराने पर इनाम मिलता है, और दूसरी जगह मारने पर। लीबिया के सैनिक तानाशाह रहे गद्दाफी की बेटी आयशा गद्दाफी ने तो बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अल जैदी को मैडल ऑफ़ करेज से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है। ये तो कुछ भी नहीं वेनेजुएला के राष्ट्रपति ने तो अल जैदी को बहादुरी के अवार्ड से नवाजने का निर्णय लिया है। अब जब इराकी पत्रकार जूता फेंकने पर इतना सम्मान पा सकता है तो क्या हमारे यहाँ के नेता लाख दो लाख भी खर्च नहीं कर सकते।
हाँ ये बात अलग है की अगर नेताओं ने कुछ ख़ास नही किया तो होम मिनिस्टर पर फेंका गया जूता जाया नहीं जायेगा। उसकी बोली कई कंपनियाँ खड़े खड़े लगाने को तैयार हो जाएँगी । हो सकता है की अब ये जूता और उसे बनने वाली कम्पनी एक ब्रांड के तौर पर उभर कर सामने आयें, क्योंकि बुश पर फेंके गए जूते की बोली 50 करोड़ लगायी गई है। ऐसे में भारतीय कंपनियाँ इतनी भी गई बीती नहीं की इस जूते की कीमत लाखों में न लगे।
बुश पर फेंके गए जूते की प्रतिकृति बनाकर उसे सम्मान सहित सद्दाम हुसैन के गृहनगर तिकरित में बाकायदा एक स्मारक में रखा गया है तो फिर भारतीय जूते का भी सम्मान जरूरी है। अब देखना है की इसे किस स्मारक में रखा जाता है, या फिर इसके लिए कोई नया शू म्यूज़ियम ही बनाया जाएगा।

Wednesday, April 1, 2009

किसी का "जय हो" तो किसी का "भय हो"

वैश्विक दौर में बाजारवाद इस कदर हावी है की अब चुनाव भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं, शायद यही वजह है की प्रचार-प्रसार के लिए जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, वो बड़े ही दिलचस्प हैं। इन दिनों टीवी पर एक बड़े राजनीतिक दल का प्रचार-प्रसार आस्कर विजेता फ़िल्म स्लमडॉग मिलेनियर के मशहूर गीत "जय हो" की तर्ज पर देखा-सुना जा सकता है। लेकिन जब बात चुनाव की हो और वो भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आम चुनाव की तो भला दिग्गज पार्टियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। शायद इसी के चलते देश की एक और राजनीतिक पार्टी ने जय हो की तर्ज पर पेरोडी सॉन्ग तैयार करवाया है। हालांकि स्लमडॉग का गीत लिखकर गुलजार साहब तो ऑस्कर ले गए, लेकिन जिसने ये पैरोडी गीत बनाया है वो भी अवार्ड का हकदार तो है। हाँ ये बात अलग है कि इस पैरोडी सॉन्ग में विपक्षी दल की बखिया उधेड़ने का काम किया गया है, जबकि 'जय हो' गीत में एक विशेष पार्टी अपने मुंह मिया मिट्ठू बनी है। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं...
भय हो...भय हो...भय हो...
फिर भी जय हो...जय हो...
आजा आजा वोटर इस झांसे के तले
आजा आजा झूठे-मूठे वादे के तले
भय हो... भूख हो...
रत्ती-रत्ती सच्ची हमने जान गंवायी है,
भूखे पेट जाग-जाग रात बितायी है,
मंदी की मार में नौकरी गँवा दी,
गिन-गिन वादे हमने जिंदगी बिता दी,
मंदी हो...महंगाई हो...आतंक हो...
भय हो...भय हो...फिर भी जय हो...

राजनीतिक दलों द्वारा एक दूसरे के जवाब में जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, वे वाकई दिलचस्प हैं। चुनाव के समय इस तरह के प्रचार-प्रसार गाहे-बगाहे देखने को मिल ही जाते हैं, जिसमें दो दल आपस में एक दूसरे के नुस्ख निकालने में लगे रहते हैं। खैर मामला जो भी हो, लेकिन एक बात तो तय है की इस विज्ञापन को तैयार करने में किसी न किसी विज्ञापन एजेन्सी और कलाकारों का तो कुछ भला हो ही जाएगा।
खैर इन गीतों के बोल सुनकर जनता किस हद तक प्रभावित होती है, और वाकई में किसकी जय-जयकार होती है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल हम इनकी पैरोडी सुनकर कुछ आनंद तो उठा ही सकते हैं।

Tuesday, March 31, 2009

चुनावी चक्कर में फंसा आईपीओ बाज़ार

मौसम भले ही अब गर्मी का शुरू हो गया हैं, लेकिन आई पी ओ बाज़ार के लिए तो अभी सब कुछ ठंडा ही हैं। आपको शायद पिछले वर्ष रिलायंस पॉवर के आई पी ओ का समय याद हो, जब शेयर मार्केट बूम पर था, और सभी आई पी ओ के माध्यम से शेयर बाज़ार में अपनी किस्मत आजमाने को उतारू थे। लेकिन वो दिन अब हवा हुए जब शेयर मार्केट और आई पी ओ दोनों बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से भाग रहे थे।
हालांकि पिछले हफ्ते सेंसेक्स के 10 हज़ार का मनोवैज्ञानिक स्तर पार करने के बावजूद भी आई पी ओ बाज़ार में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। आई पी ओ बाज़ार में न हो पा रहे इस सुधार के पीछे फिलहाल मुझे 2 कारण नज़र आ रहे हैं। पहला तो ये की विदेशी संस्थागत निवेशक अब भी भारतीय बाजारों में निवेश करने से कतरा रहे हैं और दूसरा ये की जो कंपनियाँ आई पी ओ लाना चाहती हैं वो भी शायद चुनाव ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हैं। आई पी ओ बाज़ार में छाई सुस्ती का आलम ये हैं की पिछले तीन हफ्तों में सेंसेक्स 20 फीसदी ऊपर आ चुका हैं, लेकिन इसके बावजूद 600 इश्यु लिस्टिंग की कतार में हैं। इन आई पी ओ के कतार में होने का कारण सेंसेक्स की धीमी चाल तो हैं ही, लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सेकंड्री मार्केट से अच्छे और सकारात्मक संकेतों का न होना भी हैं। जहाँ तक आई पी ओ बाज़ार का सवाल हैं तो इसकी मजबूती विदेशी संस्थागत निवेशकों के ऊपर काफ़ी कुछ निर्भर करती हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह से भारतीय बाजारों का प्रदर्शन रहा हैं, उसे देखते हुए निवेश की बात तो दूर, ऍफ़ आई आई ने उल्टा पैसा खींचना शुरू कर दिया था। ऐसे में भला आई पी ओ बाज़ार से बेहतरी की उम्मीद करना भी बेमानी ही होगा।
हालांकि जहाँ तक उम्मीद हैं की चुनाव के ठीक बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों एनएच पी सी और आयल इंडिया के आई पी ओ आ सकते हैं। कुल मिलाकर अगर बाज़ार की सभी स्थितियों का विश्लेषण किया जाए तो एक बात साफ़ होती हैं, की कहीं न कहीं निवेशक और कंपनियाँ भी चुनाव के चलते शेयर बाज़ार की अस्थिरता का सामना नहीं करना चाहती। शायद यही वजह हैं की आई पी ओ बाज़ार कहीं न कहीं चुनावी चक्कर में पड़ा दिख रहा हैं और फिलहाल 2 महीने इसके ठंडा रहने के आसार ही नज़र आ रहे हैं।

Saturday, February 28, 2009

ख़त्म हुआ नयनों (नैनो) का इंतज़ार


पिछले साल दिल्ली में आयोजित नौंवे ऑटो एक्सपो में टाटा समूह के चेयरमैन जब लखटकिया कार में सवारी करते मंच पर दिखे तो एक बात तो साफ़ हो गई थी की जिस कार का देश वासियों को लंबे समय से इंतज़ार था, वह अब जल्द ही उनकी हो सकती है। लेकिन लखटकिया का सफर इतना आसान कहाँ था। उसकी राह में कई तरह के रोड़े आए, लेकिन इन सबसे जूझते हुए आख़िर वो घड़ी आ ही गई जिसका सभी को लंबे समय से इंतज़ार था। मार्च के महीने की 23 तारीख को नैनो लॉन्च हो रही है। वैसे अगर देखा जाए तो नैनो की कहानी बड़ी दिलचस्प रही है।
बात साल 2003 के अगस्त-सितम्बर माह की है, जब टाटा अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से घर लौट रहे थे। अचानक रास्ते में उन्होंने एक युवा दंपत्ति को दो बच्चों के साथ स्कूटर पर भीगते हुए देखा। बस यहीं से टाटा के मन में विचार आया की क्यों न मैं एक ऐसी कार बनाऊं, जिसे मध्यम तबके के लोग भी खरीद सकें। इस घटना के बाद रतन टाटा ने पुणे स्थित टाटा मोटर्स के प्लांट पर जाकर कम्पनी के प्रबंध निदेशक से जाकर इस योजना पर बातचीत की। इसके बाद करीबन पाँच वर्षों तक इस योजना पर काम चलता रहा और अब परिणाम सबके सामने है। हालांकि जब टाटा ने लखटकिया कार के निर्माण का प्रस्ताव रखा तो सभी ने उनका उपहास भी उडाया और वास्तव में आज के प्रतिस्पर्धी दौर में जब इस्पात की कीमतें आसमान छू रही हों तो ऐसी परिस्थितियों में कम खर्चीली तथा पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल कार बनाना कोई आसान काम नहीं था। ये तो धारा की विपरीत दिशा में बहने से कम नहीं था। इसके साथ ही साथ देश के अन्य कार निर्माताओं के अलावा विश्व स्तरीय कार निर्माण क्षेत्र की कंपनियाँ भी प्रतियोगी बन सामने खड़ी थी। किंतु टाटा को तो जैसे बस अपना लक्ष्य दिख रहा था, और वैसे भी जब कुछ करने का जूनून और सपना होता है, तो ये सब बातें गौण लगती हैं। शायद यही टाटा के साथ हुआ। उन्हें अपने सहयोगियों की क्षमताओं पर कतई संदेह नहीं था और आखिरकार उनकी पूरी टीम ने कड़ी मेहनत के बाद लोगों के इंतज़ार की उस घड़ी को ख़त्म कर ही दिया, जब लोग नैनो में सवारी करने की आस लिए बैठे थे। इसके साथ ही टाटा ने उन लोगों को भी करार जवाब दिया है, जो लाख रुपये में कार निर्माण को महज मजाक समझते थे। नैनो के आने से सिर्फ़ भारतीयों का सिर ही गर्व से ऊँचा नहीं हुआ है, बल्कि इसने भारतीय लोगों की क्षमताओं के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण को भी बदल दिया है।
बहरहाल नैनो को जनता से कैसा प्रतिसाद मिलता है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन अगर आटोमोबाइल विशेषज्ञों की मानें तो लखटकिया को पसंद करने वाला एक अलग ही उपभोक्ता वर्ग है। फिलहाल कुछ दिनों बाद ही हमें नैनो सड़कों पर दौड़ती दिखाई देगी।