पिछले साल दिल्ली में आयोजित नौंवे ऑटो एक्सपो में टाटा समूह के चेयरमैन जब लखटकिया कार में सवारी करते मंच पर दिखे तो एक बात तो साफ़ हो गई थी की जिस कार का देश वासियों को लंबे समय से इंतज़ार था, वह अब जल्द ही उनकी हो सकती है। लेकिन लखटकिया का सफर इतना आसान कहाँ था। उसकी राह में कई तरह के रोड़े आए, लेकिन इन सबसे जूझते हुए आख़िर वो घड़ी आ ही गई जिसका सभी को लंबे समय से इंतज़ार था। मार्च के महीने की 23 तारीख को नैनो लॉन्च हो रही है। वैसे अगर देखा जाए तो नैनो की कहानी बड़ी दिलचस्प रही है।
बात साल 2003 के अगस्त-सितम्बर माह की है, जब टाटा अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से घर लौट रहे थे। अचानक रास्ते में उन्होंने एक युवा दंपत्ति को दो बच्चों के साथ स्कूटर पर भीगते हुए देखा। बस यहीं से टाटा के मन में विचार आया की क्यों न मैं एक ऐसी कार बनाऊं, जिसे मध्यम तबके के लोग भी खरीद सकें। इस घटना के बाद रतन टाटा ने पुणे स्थित टाटा मोटर्स के प्लांट पर जाकर कम्पनी के प्रबंध निदेशक से जाकर इस योजना पर बातचीत की। इसके बाद करीबन पाँच वर्षों तक इस योजना पर काम चलता रहा और अब परिणाम सबके सामने है। हालांकि जब टाटा ने लखटकिया कार के निर्माण का प्रस्ताव रखा तो सभी ने उनका उपहास भी उडाया और वास्तव में आज के प्रतिस्पर्धी दौर में जब इस्पात की कीमतें आसमान छू रही हों तो ऐसी परिस्थितियों में कम खर्चीली तथा पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल कार बनाना कोई आसान काम नहीं था। ये तो धारा की विपरीत दिशा में बहने से कम नहीं था। इसके साथ ही साथ देश के अन्य कार निर्माताओं के अलावा विश्व स्तरीय कार निर्माण क्षेत्र की कंपनियाँ भी प्रतियोगी बन सामने खड़ी थी। किंतु टाटा को तो जैसे बस अपना लक्ष्य दिख रहा था, और वैसे भी जब कुछ करने का जूनून और सपना होता है, तो ये सब बातें गौण लगती हैं। शायद यही टाटा के साथ हुआ। उन्हें अपने सहयोगियों की क्षमताओं पर कतई संदेह नहीं था और आखिरकार उनकी पूरी टीम ने कड़ी मेहनत के बाद लोगों के इंतज़ार की उस घड़ी को ख़त्म कर ही दिया, जब लोग नैनो में सवारी करने की आस लिए बैठे थे। इसके साथ ही टाटा ने उन लोगों को भी करार जवाब दिया है, जो लाख रुपये में कार निर्माण को महज मजाक समझते थे। नैनो के आने से सिर्फ़ भारतीयों का सिर ही गर्व से ऊँचा नहीं हुआ है, बल्कि इसने भारतीय लोगों की क्षमताओं के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण को भी बदल दिया है।
बहरहाल नैनो को जनता से कैसा प्रतिसाद मिलता है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन अगर आटोमोबाइल विशेषज्ञों की मानें तो लखटकिया को पसंद करने वाला एक अलग ही उपभोक्ता वर्ग है। फिलहाल कुछ दिनों बाद ही हमें नैनो सड़कों पर दौड़ती दिखाई देगी।
बात साल 2003 के अगस्त-सितम्बर माह की है, जब टाटा अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से घर लौट रहे थे। अचानक रास्ते में उन्होंने एक युवा दंपत्ति को दो बच्चों के साथ स्कूटर पर भीगते हुए देखा। बस यहीं से टाटा के मन में विचार आया की क्यों न मैं एक ऐसी कार बनाऊं, जिसे मध्यम तबके के लोग भी खरीद सकें। इस घटना के बाद रतन टाटा ने पुणे स्थित टाटा मोटर्स के प्लांट पर जाकर कम्पनी के प्रबंध निदेशक से जाकर इस योजना पर बातचीत की। इसके बाद करीबन पाँच वर्षों तक इस योजना पर काम चलता रहा और अब परिणाम सबके सामने है। हालांकि जब टाटा ने लखटकिया कार के निर्माण का प्रस्ताव रखा तो सभी ने उनका उपहास भी उडाया और वास्तव में आज के प्रतिस्पर्धी दौर में जब इस्पात की कीमतें आसमान छू रही हों तो ऐसी परिस्थितियों में कम खर्चीली तथा पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल कार बनाना कोई आसान काम नहीं था। ये तो धारा की विपरीत दिशा में बहने से कम नहीं था। इसके साथ ही साथ देश के अन्य कार निर्माताओं के अलावा विश्व स्तरीय कार निर्माण क्षेत्र की कंपनियाँ भी प्रतियोगी बन सामने खड़ी थी। किंतु टाटा को तो जैसे बस अपना लक्ष्य दिख रहा था, और वैसे भी जब कुछ करने का जूनून और सपना होता है, तो ये सब बातें गौण लगती हैं। शायद यही टाटा के साथ हुआ। उन्हें अपने सहयोगियों की क्षमताओं पर कतई संदेह नहीं था और आखिरकार उनकी पूरी टीम ने कड़ी मेहनत के बाद लोगों के इंतज़ार की उस घड़ी को ख़त्म कर ही दिया, जब लोग नैनो में सवारी करने की आस लिए बैठे थे। इसके साथ ही टाटा ने उन लोगों को भी करार जवाब दिया है, जो लाख रुपये में कार निर्माण को महज मजाक समझते थे। नैनो के आने से सिर्फ़ भारतीयों का सिर ही गर्व से ऊँचा नहीं हुआ है, बल्कि इसने भारतीय लोगों की क्षमताओं के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण को भी बदल दिया है।
बहरहाल नैनो को जनता से कैसा प्रतिसाद मिलता है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन अगर आटोमोबाइल विशेषज्ञों की मानें तो लखटकिया को पसंद करने वाला एक अलग ही उपभोक्ता वर्ग है। फिलहाल कुछ दिनों बाद ही हमें नैनो सड़कों पर दौड़ती दिखाई देगी।