आप सभी का स्वागत करता है...

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Wednesday, November 26, 2008

बड़े बेआबरू होके तेरे कूचे से हम...

केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के काबिना मंत्री को आतंकवाद के मुद्दे ने आखिरकार देर से ही सही लेकिन चारों खाने चित्त कर ही दिया। करीबन अपने 55 महीने के कार्यकाल में गृहमंत्री ने भले ही देश की सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान न दिया हो लेकिन कपड़े बदलने के मामले में तो उन्होंने वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है। अरे !!! ये मज़ाक नहीं सच है, आपकी याददाश्त के लिए बता दूँ की सितम्बर महीने की 13 तारीख को जब देश की राजधानी पर आतंकवादी कहर बरपा रहे थे तो हमारे गृह मंत्री (पूर्व) के माथे पर कोई शिकन नहीं थी। वे तो बस बेहतर से बेहतर दिखने के लिए कपड़े बदलने में मशगूल थे। धमाकों के समय उन्होंने महज पाँच घंटे में तीन बार कपड़े बदल डाले। न्यूज़ चेनलों में उनकी इस करतूत को सारे देश ने देखा। धमाकों के सिलसिले में चर्चा करने जब वे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी से मिलने गए तो सफ़ेद सूट में नज़र आए, उसके ठीक दो घंटे बाद ही जब वे अपने निवास से लौटकर पत्रकारों के सवालों का जवाब दे रहे थे तो यहाँ उनके सूट का रंग काला था। अरे भाई ! सिलसिला अभी थमा नहीं था, और तो और पत्रकारवार्ता के ठीक बाद जब वे घटना स्थल का जायजा लेने पहुंचे तो सफ़ेद सफारी में नज़र आए। मंत्री जी के इस तरह से कपड़े बदलने का राज कहीं ये तो नहीं कि वे भी क्रिकेटरों कि तरह किसी बड़ी कंपनी के कपडों का विज्ञापन कर रहे हों, मतलब बतौर ब्रांड एम्बेसडर। क्योंकि एक के बाद एक बदलते सूट जिस तरह से उनकी शोभा बढ़ा रहे थे उससे तो यही ज़ाहिर होता है। वैसे भी नेताओं का जलवा किसी क्रिकेट खिलाड़ी या फ़िल्म स्टार से कम नहीं है और यहाँ पर तो एक बड़े विभाग कि जिम्मेदारी सँभालने वाले एक काबिना मंत्री कि बात है...हो सकता है सूटिंग शर्टिंग कि किसी बड़ी कम्पनी ने उन्हें इस मौके पर अपने उत्पाद का प्रचार करने के लिए कहा हो...और इन्होने भी वक्त के तकाजे को पहचानते हुए उस वक्त को चुना, जब सारा देश उन्हें कपड़े बदलते हुए देख रहा हो। मतलब एक तीर से दो शिकार...विज्ञापन का विज्ञापन और लोगों के प्रति संवेदनाएं। लेकिन आतंकवादियों ने तो जैसे ये सोच लिए था कि आगे भी इन्हे इसी तरह के मौके दिए जायेंगे और हुआ भी यही...इस बार आतंकियों ने तारीख चुनी 26 ,महीना नवम्बर और शहर देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई । दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद एक बार फिर दहशतगर्दो ने देश को हिलाकर रख दिया। लेकिन इस बार गाज केवल मासूम और निर्दोष जनता पर ही नहीं गिरनी थी, बल्कि इसकी जद्द में अबकी बार इनकी सुरक्षा का जिम्मा थाम रहे पोशाक प्रेमी भी रहे। पिछले साढे चार साल से गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे गृह मंत्री जी अपने कार्यकाल में 22 से अधिक आतंकी हमलों और 900 से अधिक लोगों की मौत के गवाह बने। अकेले साल 2008 में ही आतंकियों ने 13 हमले कर डाले, और हमारे पोशाक-प्रेमी मंत्री जी बस कपड़े बदलने में ही मशगूल रहे। लेकिन अबकी बार आतंकवादियों के हौसलों ने चौतरफा आलोचना से घिरी केन्द्र सरकार को भी कठोर कदम उठाने पर मजबूर कर दिया, और अंततः हमारे पोशाक-प्रेमी मंत्री जी को अपना त्यागपत्र देना पड़ा। खैर जो होता है अच्छे के लिए ही होता है...अब तो वे खुलकर कपडों के विज्ञापन कर सकते हैं...और जब चाहें अपने कपड़े बदलने का शौक भी। ऐसे में ये पंक्तियाँ इन पर खूब फबेंगी। "बदलेंगे मनमाफिक कपड़े अब तो और मज़ा आएगा, न कोई टोकने वाला होगा और न दामन पे दाग आएगा"

Tuesday, November 25, 2008

मंदी आई है तो फिर दूर तलक जायेगी...

वैश्विक मंदी ने वैसे तो किसी भी सेक्टर को नहीं बख्शा है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर फाइनेंस और ऑटो सेक्टर्स में देखने को मिल रहा है। दुनिया में महाशक्ति कहलाने वाला अमेरिका इस मंदी से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है, और वहां इस साल बंद होने वाले बैंकों कि संख्या बढकर 19 हो गई है। हालात यह है कि वहां के फिनान्सिअल सेक्टर में अब कर्मचारियों कि छंटनी का दौर शुरू हो गया है। अमेरिकी वित्तीय संस्थानों में बैंक ऑफ़ अमेरिका, इनवेस्टमेंट बैंक मोर्गन स्टेनली, लेहमन ब्रदर्स, मेरिल लिंच, जेपी मोर्गन चेज, गोल्डमन सेक्स, सिटी ग्रुप, फर्स्ट अमेरिकन कोर्प और दुनिया कि सबसे बड़ी म्यूचुअल फंड कम्पनी फिडेलिटी इनवेस्टमेंट जैसे दिग्गजों को भी अपना वर्क फोर्स कम करने को मजबूर होना पड़ा है। हाल ही में लॉस एंजेलेस स्थित सिक्यूरिटी पैसिफिक बैंक तथा ह्यूस्टन के फ्रैंकलिन बैंक के दिवालियेपन ने अमेरिका में छाए संकट के बादलों को और घना कर दिया है। उधर अमेरिकी मीडियाई बाज़ार को भी कमजोर विज्ञापन के चलते कर्मचारियों कि छंटनी करने को मजबूर होना पड़ रहा है। बात अगर यहीं तक हो तो फिर भी ठीक है, लेकिन मंदी के इरादे कुछ नेक नहीं लग रहे हैं, तभी तो ऑटो सेक्टर भी उसकी गिरफ्त से बच नहीं पाया है.....और अब हालात ये हैं कि वैश्विक ऑटो बाजार मंदी के कारण कारों कि मांग में भारी कमी देखने को मिल रही है, जिसके चलते अमेरिका कि सबसे बड़ी कार निर्माता कम्पनी भी दिवालिया होने कि कगार पर पहुँच चुकी है। हालांकि कम्पनी के प्रेजिडेंट ने दिवालियेपन से बचने के लिए सरकार से लोन गारंटी कि मांग उठायी है, लेकिन अमेरिका में राजनीतिक बदलाव के चलते ये मांग इतनी जल्दी पूरी होने के आसार कम ही नजर आ रहे हैं। खैर, इस वैश्विक मंदी ने दुनियाभर की वाहन निर्माता कम्पनियों कि रफ़्तार पर तो ब्रेक लगाया ही है...साथ ही कुछ कम्पनियों को तो बिकने कि कगार पर ला खड़ा किया है। ऐसे में जगजीत सिंह की गाई हुयी ग़ज़ल की पेरोडी सटीक बैठती है कि...मंदी आयी है तो फिर दूर तलक जायेगी...लोग बेवजह मंदी का सबब पूछेंगे...

Saturday, November 22, 2008

मंदी में भी काट रहे हैं चांदी

एक ओर मंदी ने जहाँ निवेशकों को खून के आंसू रोने पर मजबूर किया है, वहीँ दूसरी ओर यही मंदी प्रमोटरों के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है। जनवरी से लेकर अब तक शेयर बाज़ार में गिरावट के चलते कई कम्पनियों के शेयर अर्श से फर्श पर आ गए हैं, जिसका लाभ उठाकर प्रमोटर्स अपनी ही कम्पनियों के शेयर औने-पौने दामों में खरीद रहे हैं। इससे प्रमोटरों को एक तीर से दो शिकार करने का बेहतर अवसर भी मिल गया है। एक तो ये की उन्हें अपनी ही कम्पनी में अधिक से अधिक हिस्सेदारी बढ़ाने का मौका मिला है और दूसरा ये की इस कदम से वे अधिग्रहण जैसे बाहरी खतरों को भी टालने में सफल होंगे।
खैर जो भी हो लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं न कहीं बाज़ार नियामक यानि सेबी के नियम भी मददगार साबित हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले ही सेबी ने क्रीपिंग एक्विजिशन यानि रेंगती हुयी खरीदारी की सीमा को 55 प्रतिशत से बढाकर 75 प्रतिशत कर दिया है। ऐसे में अब कम्पनियों के प्रमोटर्स अपनी ही कम्पनी के शेयर कम से कम दाम पर खरीदकर मंदी में भी चांदी काट रहे हैं। वैसे कम्पनियों के प्रोमोटर्स भी पहुँची हुयी चीज़ हैं, क्योंकि वे जानते हैं की जब उनकी कम्पनियों के शेयर वास्तविक कीमत से कम पर उपलब्ध हैं, तो क्यों न इस सुनहरे अवसर को भुनाकर कम्पनी में अपनी हिस्सेदारी बढाई जाए।
वैसे जो भी हो लेकिन प्रमोटरों द्वारा उठाये जा रहे इस कदम का फायदा कहीं न कहीं आम निवेशक को भी मिलेगा, क्योंकि आमतौर पर माना जाता है कि अगर प्रमोटर्स अपनी ही कम्पनी में हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं तो उन्हें अपनी योजनाओं और कम्पनी के भविष्य पर पूरा भरोसा है। इसके कारण कम्पनी के शेयरों की कीमतों पर सकारात्मक असर पड़ेगा, जिसका सीधा लाभ कम्पनी के शेयर धारकों को होगा। यानी कुल मिलाकर गलती से ही सही लेकिन प्रमोटर्स कहीं न कहीं निवेशकों के हितों का भी ध्यान रख रहे हैं।

Saturday, November 1, 2008

विदेशी मुद्रा भण्डार बनाम सीआरआर

पिछले कुछ समय से बाज़ार में नकदी की समस्या दूर करने की लिए रिजर्व बैंक लगातार सीआरआर में कटौती कर रहा है। लेकिन क्या इस कटौती का कारण सिर्फ़ बाज़ार में तरलता बढ़ाना ही है? इस बार सीआरआर में की गयी 1 प्रतिशत की कमी का कारण भारतीय विदेशी मुद्रा भण्डार में आ रही गिरावट तो नहीं। एक समय था जब भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था, लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें लगातार कमी आ रही है। वर्ष-2008 की बात करें तो पिछले आठ महीनों में यह 50 अरब डॉलर से भी अधिक गिर चुका है, कारण साल की शुरुआत से ही भारतीय शेयर बाज़ार की खस्ता हालत के चलते विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अपना पैसा खींचना शुरू कर दिया, जिसके चलते डॉलर के मुकाबले रूपया कमजोर होने लगा। ऐसे में रुपये को मजबूती दिलाने के लिए रिज़र्व बैंक ने डॉलर बेचना शुरू कर दिया। यही कारण है कि पिछले कुछ समय से भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आ रही है। एक वक्त था जब भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार 300 अरब डॉलर से भी अधिक था, लेकिन टूटते रुपये को सहारा देने के लिए रिज़र्व बैंक को डॉलर बेचने जैसा कदम उठाना पड़ा और वर्तमान में यह घटकर 252 अरब डॉलर के आस-पास रह गया है। हालांकि रिज़र्व बैंक द्वारा डॉलर कि बिक्री का सकारात्मक परिणाम भी देखने में आया और डॉलर के मुकाबले रूपया कुछ हद तक सुधरा भी है। लेकिन डॉलर कि बिक्री ने सीआरआर में की गई कमी के कारण बाज़ार में आने वाली तरलता के असर को कम कर दिया। यही वजह है कि बाज़ार में पर्याप्त तरलता को बनाये रखने के लिए आरबीआई को एक बार फिर सीआरआर में कटौती करनी पड़ी है। खैर जो भी हो पर अब यह देखना दिलचस्प होगा कि गिरते विदेशी मुद्रा भण्डार को बढ़ाने और बाज़ार में लिक्विडिटी बनाये रखने के लिए केंद्रीय बैंक आख़िर क्या नए कदम उठाती है।