आप सभी का स्वागत करता है...

आप सभी का स्वागत करता है...

Wednesday, August 5, 2009

आख़िर क्यों महँगी हो रही मिठास ?



सुबह उठते ही चाय की चुस्कियों से लेकर रात के खाने तक, शायद ही हम चीनी के इस्तेमाल के बिना रहते हों, लेकिन अब हमें यह आदत जल्द बदलनी पड़ सकती है। इसका कारण साफ़ है कि जिस तरह से चीनी के दाम आसमान छू रहे हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि हाल-फिलहाल इससे राहत मिलने कि उम्मीद कम ही है। ऊंचे तबके से लेकर निम्न तबके तक लगभग सभी अपने दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में चीनी का उपयोग अवश्य करते हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से इसके बदले तेवरों के चलते लोगों को मिठास का एहसास कराने वाली चीनी का स्वाद कड़वा होता जा रहा है।


अगर हम वर्ष 2009 के दौरान चीनी के दामों में आई तेज़ी पर नज़र डालें तो खुदरा बाज़ार में जनवरी में इसकी कीमत 21 रुपये/किलो थी, हालांकि यह कीमत भी सामान्य दाम से लगभग 4 रुपये/किलो ज्यादा थी, लेकिन इसके बावजूद लोगों ने चीनी खाना कम नहीं किया। बढती मांग को देखते हुए चीनी के भाव और चढ़ने लगे और मार्च आते-आते इसने 25 रुपये/किलो का स्तर छू लिया। अब लोगों को और सरकार को भी लगने लगा कि चीनी ने तेज़ी कि राह पकड़ ली है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने अपनी ओर से चीनी के दामों में लगाम लगाने कि कोशिश न कि हो, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीनी के दामों में आए उछाल कि वजह से इसपे काबू पाना सरकार के बस में भी नहीं रहा। खैर जैसे-तैसे 2 महीने का वक्त गुजरा लेकिन चीनी के दाम बेकफुट पर आने के बजाय फ्रंटफुट कि ओर बढ़ने लगे और मई आते-आते चीनी ने 27 रुपये/किलो के आंकडे को छू लिया। दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहे चीनी के दामों ने इस बार सरकार के भी कान खड़े कर दिए और और सरकार ने आनन-फानन में चीनी पर "स्टॉक होल्डिंग और टर्नओवर लिमिट लगाने के साथ ही इसके वायदा कारोबार पर भी रोक लगा दी।


चीनी के दामों को नियंत्रित करने के लिए उठाये गए इन क़दमों से सरकार को ही नहीं बल्कि आम जनता को भी लगने लगा कि अब शायद चीनी फिर से आम आदमी कि पहुँच में होगी, लेकिन नतीजा फिर वही "ढाक के तीन पात"। स्टॉक होल्डिंग लिमिट बंद किए जाने के बाद भी राज्य सरकारों द्वारा इसकी अनदेखी कि जा रही है और नतीजा ये है, कि देश में अब तक सिर्फ़ 11 राज्यों ने ही इस फैसले को लागू किया है। इसमे सबसे चिंता की बात ये है कि चीनी कि सर्वाधिक खपत वाले बड़े राज्य उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश ने भी इसे लागू नहीं किया है।


चीनी के बढ़ते दामों के लिए केन्द्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी दोषी हैं और यही वजह है कि जून में चीनी के दाम 30 रुपये/किलो के स्तर पर पहुँच गए। अर्थशास्त्र कि भाषा में अगर बात करें तो चीनी कि कीमतों में आई तेज़ी का सबसे बड़ा कारण मांग और उत्पादन में भारी अन्तर है, उपभोक्ता मांग के अलावा फ़ूड प्रोसेसिंग, फास्ट फ़ूड तथा रेस्टोरेंट आदि में भी चीनी कि मांग तेज़ी से बढ़ी है, इसके अलावा ग्रामीण परिवेश में भी अब तेज़ी से बदलाव आ रहा है और लोग गुड कि बजाय शक्कर ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। इन सबकी तुलना में यदि उत्पादन कि बात करें तो वह साल-दर-साल घटा है। इसके अलावा मौसम भी शक्कर के दामों में आई तेज़ी का प्रमुख कारण है। चीनी के मुख्य स्त्रोत गन्ना को काफ़ी पानी और मेहनत कि जरूरत होती है, लेकिन पिछले कुछ समय से गन्ना किसानों को मौसम कि बेरुखी का सामना भी करना पड़ा है, जिसके चलते अब किसान भी गन्ने कि खेती करने से कतराने लगे हैं। इन सबके अलावा चीनी के दामों में तेज़ी का एक कारण कहीं न कहीं राजनीती भी है। केन्द्र और राज्य सरकारों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण राज्य सरकारें गन्ने का का दाम बेतुके ढंग से बढ़ा रही हैं, जिसके चलते चीनी मिलों को गन्ना खरीदने में दिक्कत हो रही है, फलस्वरूप गन्ने का रकवा घट रहा है और किसान कम पैदावार कर रहे हैं।

चीनी के बढ़ते दाम को नियंत्रित करने के लिए सरकार काफ़ी हाथ-पैर भी मार रही है, और यही वजह है कि लगभग 17.5 लाख टन रा- शुगर आयात की जा चुकी है और १५ अगस्त तक यह आंकडा लगभग 18.5 लाख टन पहुँचने कि उम्मीद है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चीनी के 25 साल के उच्चतम स्तर पर पहुँचने के कारण भी इसकी कीमतों में तेज़ी आई है। इसके साथ ही जानकारों के मुताबिक त्योहारी सीज़न में मांग बढ़ने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमतें तेज़ रहने कि वजह से आने वाले 3 महीनों में चीनी के दाम और बढ़ सकते हैं। वैश्विक हालातों और देश में मौसम की बेरुखी देखकर तो यही लगता है, कि आने वाले समय में चीनी कि मिठास खटास में बदलने वाली है और ऐसे में अमिताभ और तब्बू अभिनीत फ़िल्म का ये गाना सटीक बैठता है, कि "चीनी कम है...चीनी कम...थोडी-थोडी तुझमें है, थोडी-थोडी कम-कम...

Thursday, July 30, 2009

महंगाई दर पाताल में, कीमतें आसमान में


पिछले कुछ समय से एक बात है, जो लोगों के गले नहीं उतर रही, और उतरे भी कैसे...आख़िर लोगों की समझ में ये नहीं आ रहा है, कि आर्थिक और सांख्यिकी विभाग द्वारा हर सप्ताह जारी किए जाने वाले महंगाई दर के आंकडे तो ऋणात्मक हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ यदि खाद्यान और रोजमर्रा कि जरूरतों वाली वस्तुओं पर नज़र डालें तो उनकी कीमतें लगातार आसमान छू रही हैं। भले ही ये बात अर्थशास्त्रियों और आर्थिक क्षेत्र के जानकारों को समझ आती हो, लेकिन कम से कम ये आंकडे एक आम आदमी कि समझ से तो परे हैं।
लगातार सात महीनों से थोक मूल्य सूचकांक शून्य से नीचे बना हुआ है, हालांकि महंगाई दर के इस तरह के आंकडे देखकर सरकार और रिज़र्व बैंक भी कम चिंतित नहीं हैं, लेकिन इन आंकडों के उलट दूसरी तरफ़ जो हकीकत है, उससे देश का हर आदमी परेशान है और यही सोच रहा है, कि आख़िर हर सप्ताह जारी किए जाने वाला महंगाई दर का आंकडा तो लंबे समय से शून्य से भी नीचे बना हुआ है, फिर आख़िर वस्तुओं के दाम क्यों नहीं कम हो रहे? वाकई ये सवाल एकबारगी हर किसी के मन में उठाना लाजिमी है।
क्या वाकई महंगाई दर कम हो रही है, या ये सिर्फ़ जनता को दिखाने के लिए आंकडों कि बाजीगरी है, क्योंकि पिछले कुछ समय से जिस तरह से खाद्य पदार्थों के दामों में तेज़ी आई है, उससे जनता को राहत मिलती नहीं दिख रही है।
अब सवाल यह उठता है, कि आख़िर इस विसंगति कि वजह क्या है? क्या सरकार जानबूझकर जनता को अंधेरे में रखना चाहती है, या इन आंकडों में सच्चाई है। वैसे जहाँ तक इस विसंगति कि बात कि जाए तो इसके पीछे जो ठोस कारण नज़र आता है, वो है महंगाई दर को मापने का सूचकांक।
भारत में महंगाई दर को मापने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का सहारा लिया जाता है, तथा इसके आधार पर हर सप्ताह आंकडे जारी किए जाते हैं। इस सूचकांक का इस्तेमाल उन उत्पादों कि कीमत स्तर में परिवर्तन आंकने के लिए किया जाता है, जिनका कारोबार थोक बाजारों में होता है, जबकि अन्य कई देशों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर महंगाई दर कि गड़ना की जाती है। आंकडों और वस्तुओं के मूल्य में आई विसंगति का सबसे बड़ा कारण यही है कि थोक मूल्य सूचकांक में मात्र ४३५ वस्तुओं को शामिल किया गया है, जबकि उपभोक्ता इससे कहीं अधिक वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं। अतः इस आधार पर या तो सभी उपयोगी वस्तुओं को इसमें शामिल किया जाए, या फिर इसकी जगह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति कि गड़ना कि जाए। थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट की सबसे बड़ी वजह है, ईंधन और मेनुफक्च्रिंग, और यही कारण है, की महंगाई दर के आंकडे तो कम हैं, लेकिन वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं।
हालांकि सबसे विचारणीय प्रश्न यह है, कि महंगाई दर के ऋणात्मक होने के बावजूद रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति कि समीक्षा में कोई ठोस उपाय नहीं किए। सिर्फ़ अनुमान लगाया है कि २०१० में यह ५ फीसदी के करीब आ जायेगी। अब देखना है, कि रिज़र्व बैंक का यह अनुमान कितना सटीक बैठता है। हालांकि आम जनता को मुद्रास्फीति के आंकडों से कोई मतलब नहीं है, उसे तो बस आसमान छूती कीमतों की चिंता है। अगर सरकार उसे काबू में कर ले तो जनता को अवश्य राहत मिलेगी।

Tuesday, April 7, 2009

जूता मारकर भी जीते इनाम


क्या आपको याद है 14 दिसम्बर की वो प्रेस कांफ्रेंस जब एक इराकी पत्रकार ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ़ जूता उछाला था। कुछ दिनों पहले ही चीनी प्रधानमंत्री पर भी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण के दौरान एक युवक ने उन्हें निशाना बनाते हुए जूता फेंका था. अगर आप किसी कारणवश वो लम्हा नहीं देख पाये तो इसका मलाल अपने दिल से निकाल दीजिये, क्योंकि ठीक उसी का एक्शन रिप्ले हमारे देश में भी दिखा। फर्क सिर्फ़ इतना था की वहां अंकल सैम थे और यहाँ हमारे होम मिनिस्टर साहब।

वाकया उस समय हुआ जब एक पत्रकार वार्ता के दौरान एक निजी समाचार पत्र के वरिष्ठ संवाददाता द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में मिनिस्टर साहब संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए और उसका खामियाजा जूते के रूप में उनके सामने आया।
हालांकि एक पत्रकार की दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी तरह के भावावेश में आकर इस तरह का कदम उठाना निंदनीय है, लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि जब जनता के प्रतिनिधि हमारे विधायक और सांसद ही सदन में एक दूसरे पर जूतम पैजार शुरू कर देते हैं तो भावनाओं में आकर एक पत्रकार को अपने आप पर काबू रखना कितना मुश्किल हुआ होगा, और इसी का परिणाम है जो इतना बड़ा हादसा हो गया। खैर जो हुआ सो हुआ, लेकिन हद तो तब हो गई जब एक विशेष सम्प्रदाय से सम्बद्ध रखने वाले राजनैतिक दल के बड़े नेता ने गृह मंत्री पर जूता फेंकने वाले पत्रकार को सम्मानित करने का निर्णय ले लिया। जी हाँ इस राजनैतिक दल के वरिष्ठ नेता ने कथित पत्रकार के साहस और बहादुरी की प्रशंसा करते हुए उसे 2 लाख रुपये नगद पुरस्कार देने की घोषणा कर दी।
अब इस पुरस्कार की घोषणा ने एक नए सवाल को जन्म दे दिया है। वो ये की कहीं ऐसा तो नहीं की पत्रकार को जूता फेंकने की सुपारी दी गई हो। जिसके एवज में इस घटना को अंजाम दिया गया है, क्योंकि जो काम पत्रकार द्वारा किया गया है, वो कम से कम इतना महान तो नहीं है की इसके लिए उसे इनाम दिया जाए।
खैर, कारण चाहे जो भी हों, लेकिन जूते पर इनाम मिलने की परम्परा पुरानी है, ये बात अलग है की एक जगह जूते चुराने पर इनाम मिलता है, और दूसरी जगह मारने पर। लीबिया के सैनिक तानाशाह रहे गद्दाफी की बेटी आयशा गद्दाफी ने तो बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अल जैदी को मैडल ऑफ़ करेज से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है। ये तो कुछ भी नहीं वेनेजुएला के राष्ट्रपति ने तो अल जैदी को बहादुरी के अवार्ड से नवाजने का निर्णय लिया है। अब जब इराकी पत्रकार जूता फेंकने पर इतना सम्मान पा सकता है तो क्या हमारे यहाँ के नेता लाख दो लाख भी खर्च नहीं कर सकते।
हाँ ये बात अलग है की अगर नेताओं ने कुछ ख़ास नही किया तो होम मिनिस्टर पर फेंका गया जूता जाया नहीं जायेगा। उसकी बोली कई कंपनियाँ खड़े खड़े लगाने को तैयार हो जाएँगी । हो सकता है की अब ये जूता और उसे बनने वाली कम्पनी एक ब्रांड के तौर पर उभर कर सामने आयें, क्योंकि बुश पर फेंके गए जूते की बोली 50 करोड़ लगायी गई है। ऐसे में भारतीय कंपनियाँ इतनी भी गई बीती नहीं की इस जूते की कीमत लाखों में न लगे।
बुश पर फेंके गए जूते की प्रतिकृति बनाकर उसे सम्मान सहित सद्दाम हुसैन के गृहनगर तिकरित में बाकायदा एक स्मारक में रखा गया है तो फिर भारतीय जूते का भी सम्मान जरूरी है। अब देखना है की इसे किस स्मारक में रखा जाता है, या फिर इसके लिए कोई नया शू म्यूज़ियम ही बनाया जाएगा।

Wednesday, April 1, 2009

किसी का "जय हो" तो किसी का "भय हो"

वैश्विक दौर में बाजारवाद इस कदर हावी है की अब चुनाव भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं, शायद यही वजह है की प्रचार-प्रसार के लिए जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, वो बड़े ही दिलचस्प हैं। इन दिनों टीवी पर एक बड़े राजनीतिक दल का प्रचार-प्रसार आस्कर विजेता फ़िल्म स्लमडॉग मिलेनियर के मशहूर गीत "जय हो" की तर्ज पर देखा-सुना जा सकता है। लेकिन जब बात चुनाव की हो और वो भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आम चुनाव की तो भला दिग्गज पार्टियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। शायद इसी के चलते देश की एक और राजनीतिक पार्टी ने जय हो की तर्ज पर पेरोडी सॉन्ग तैयार करवाया है। हालांकि स्लमडॉग का गीत लिखकर गुलजार साहब तो ऑस्कर ले गए, लेकिन जिसने ये पैरोडी गीत बनाया है वो भी अवार्ड का हकदार तो है। हाँ ये बात अलग है कि इस पैरोडी सॉन्ग में विपक्षी दल की बखिया उधेड़ने का काम किया गया है, जबकि 'जय हो' गीत में एक विशेष पार्टी अपने मुंह मिया मिट्ठू बनी है। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं...
भय हो...भय हो...भय हो...
फिर भी जय हो...जय हो...
आजा आजा वोटर इस झांसे के तले
आजा आजा झूठे-मूठे वादे के तले
भय हो... भूख हो...
रत्ती-रत्ती सच्ची हमने जान गंवायी है,
भूखे पेट जाग-जाग रात बितायी है,
मंदी की मार में नौकरी गँवा दी,
गिन-गिन वादे हमने जिंदगी बिता दी,
मंदी हो...महंगाई हो...आतंक हो...
भय हो...भय हो...फिर भी जय हो...

राजनीतिक दलों द्वारा एक दूसरे के जवाब में जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, वे वाकई दिलचस्प हैं। चुनाव के समय इस तरह के प्रचार-प्रसार गाहे-बगाहे देखने को मिल ही जाते हैं, जिसमें दो दल आपस में एक दूसरे के नुस्ख निकालने में लगे रहते हैं। खैर मामला जो भी हो, लेकिन एक बात तो तय है की इस विज्ञापन को तैयार करने में किसी न किसी विज्ञापन एजेन्सी और कलाकारों का तो कुछ भला हो ही जाएगा।
खैर इन गीतों के बोल सुनकर जनता किस हद तक प्रभावित होती है, और वाकई में किसकी जय-जयकार होती है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल हम इनकी पैरोडी सुनकर कुछ आनंद तो उठा ही सकते हैं।

Tuesday, March 31, 2009

चुनावी चक्कर में फंसा आईपीओ बाज़ार

मौसम भले ही अब गर्मी का शुरू हो गया हैं, लेकिन आई पी ओ बाज़ार के लिए तो अभी सब कुछ ठंडा ही हैं। आपको शायद पिछले वर्ष रिलायंस पॉवर के आई पी ओ का समय याद हो, जब शेयर मार्केट बूम पर था, और सभी आई पी ओ के माध्यम से शेयर बाज़ार में अपनी किस्मत आजमाने को उतारू थे। लेकिन वो दिन अब हवा हुए जब शेयर मार्केट और आई पी ओ दोनों बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से भाग रहे थे।
हालांकि पिछले हफ्ते सेंसेक्स के 10 हज़ार का मनोवैज्ञानिक स्तर पार करने के बावजूद भी आई पी ओ बाज़ार में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। आई पी ओ बाज़ार में न हो पा रहे इस सुधार के पीछे फिलहाल मुझे 2 कारण नज़र आ रहे हैं। पहला तो ये की विदेशी संस्थागत निवेशक अब भी भारतीय बाजारों में निवेश करने से कतरा रहे हैं और दूसरा ये की जो कंपनियाँ आई पी ओ लाना चाहती हैं वो भी शायद चुनाव ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हैं। आई पी ओ बाज़ार में छाई सुस्ती का आलम ये हैं की पिछले तीन हफ्तों में सेंसेक्स 20 फीसदी ऊपर आ चुका हैं, लेकिन इसके बावजूद 600 इश्यु लिस्टिंग की कतार में हैं। इन आई पी ओ के कतार में होने का कारण सेंसेक्स की धीमी चाल तो हैं ही, लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सेकंड्री मार्केट से अच्छे और सकारात्मक संकेतों का न होना भी हैं। जहाँ तक आई पी ओ बाज़ार का सवाल हैं तो इसकी मजबूती विदेशी संस्थागत निवेशकों के ऊपर काफ़ी कुछ निर्भर करती हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह से भारतीय बाजारों का प्रदर्शन रहा हैं, उसे देखते हुए निवेश की बात तो दूर, ऍफ़ आई आई ने उल्टा पैसा खींचना शुरू कर दिया था। ऐसे में भला आई पी ओ बाज़ार से बेहतरी की उम्मीद करना भी बेमानी ही होगा।
हालांकि जहाँ तक उम्मीद हैं की चुनाव के ठीक बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों एनएच पी सी और आयल इंडिया के आई पी ओ आ सकते हैं। कुल मिलाकर अगर बाज़ार की सभी स्थितियों का विश्लेषण किया जाए तो एक बात साफ़ होती हैं, की कहीं न कहीं निवेशक और कंपनियाँ भी चुनाव के चलते शेयर बाज़ार की अस्थिरता का सामना नहीं करना चाहती। शायद यही वजह हैं की आई पी ओ बाज़ार कहीं न कहीं चुनावी चक्कर में पड़ा दिख रहा हैं और फिलहाल 2 महीने इसके ठंडा रहने के आसार ही नज़र आ रहे हैं।

Saturday, February 28, 2009

ख़त्म हुआ नयनों (नैनो) का इंतज़ार


पिछले साल दिल्ली में आयोजित नौंवे ऑटो एक्सपो में टाटा समूह के चेयरमैन जब लखटकिया कार में सवारी करते मंच पर दिखे तो एक बात तो साफ़ हो गई थी की जिस कार का देश वासियों को लंबे समय से इंतज़ार था, वह अब जल्द ही उनकी हो सकती है। लेकिन लखटकिया का सफर इतना आसान कहाँ था। उसकी राह में कई तरह के रोड़े आए, लेकिन इन सबसे जूझते हुए आख़िर वो घड़ी आ ही गई जिसका सभी को लंबे समय से इंतज़ार था। मार्च के महीने की 23 तारीख को नैनो लॉन्च हो रही है। वैसे अगर देखा जाए तो नैनो की कहानी बड़ी दिलचस्प रही है।
बात साल 2003 के अगस्त-सितम्बर माह की है, जब टाटा अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से घर लौट रहे थे। अचानक रास्ते में उन्होंने एक युवा दंपत्ति को दो बच्चों के साथ स्कूटर पर भीगते हुए देखा। बस यहीं से टाटा के मन में विचार आया की क्यों न मैं एक ऐसी कार बनाऊं, जिसे मध्यम तबके के लोग भी खरीद सकें। इस घटना के बाद रतन टाटा ने पुणे स्थित टाटा मोटर्स के प्लांट पर जाकर कम्पनी के प्रबंध निदेशक से जाकर इस योजना पर बातचीत की। इसके बाद करीबन पाँच वर्षों तक इस योजना पर काम चलता रहा और अब परिणाम सबके सामने है। हालांकि जब टाटा ने लखटकिया कार के निर्माण का प्रस्ताव रखा तो सभी ने उनका उपहास भी उडाया और वास्तव में आज के प्रतिस्पर्धी दौर में जब इस्पात की कीमतें आसमान छू रही हों तो ऐसी परिस्थितियों में कम खर्चीली तथा पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल कार बनाना कोई आसान काम नहीं था। ये तो धारा की विपरीत दिशा में बहने से कम नहीं था। इसके साथ ही साथ देश के अन्य कार निर्माताओं के अलावा विश्व स्तरीय कार निर्माण क्षेत्र की कंपनियाँ भी प्रतियोगी बन सामने खड़ी थी। किंतु टाटा को तो जैसे बस अपना लक्ष्य दिख रहा था, और वैसे भी जब कुछ करने का जूनून और सपना होता है, तो ये सब बातें गौण लगती हैं। शायद यही टाटा के साथ हुआ। उन्हें अपने सहयोगियों की क्षमताओं पर कतई संदेह नहीं था और आखिरकार उनकी पूरी टीम ने कड़ी मेहनत के बाद लोगों के इंतज़ार की उस घड़ी को ख़त्म कर ही दिया, जब लोग नैनो में सवारी करने की आस लिए बैठे थे। इसके साथ ही टाटा ने उन लोगों को भी करार जवाब दिया है, जो लाख रुपये में कार निर्माण को महज मजाक समझते थे। नैनो के आने से सिर्फ़ भारतीयों का सिर ही गर्व से ऊँचा नहीं हुआ है, बल्कि इसने भारतीय लोगों की क्षमताओं के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण को भी बदल दिया है।
बहरहाल नैनो को जनता से कैसा प्रतिसाद मिलता है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन अगर आटोमोबाइल विशेषज्ञों की मानें तो लखटकिया को पसंद करने वाला एक अलग ही उपभोक्ता वर्ग है। फिलहाल कुछ दिनों बाद ही हमें नैनो सड़कों पर दौड़ती दिखाई देगी।

Wednesday, February 18, 2009

मोबाइल के अलग-अलग चार्जरों से मिलेगी मुक्ति


तकनीक में हो रहे नित नए विकास का एक और कारनामा जल्द ही हमारे सामने होगा। आने वाले कुछ समय में मोबाइल चार्ज करने के लिए हमें अलग - अलग चार्जरों की जरूरत नहीं पड़ेगी। जी हाँ वैश्विक मोबाईल फ़ोन संस्था (ग्लोबल सर्विस मोबाइल असोसिएशन) की बार्सिलोना में हुयी वर्ल्ड मोबाइल कांफ्रेंस में कहा गया है कि अगले तीन सालों के अन्दर मोबाइल में यू एस बी (यूनिवर्सल सीरियल बस ) पोर्ट होगा, जिसकी मदद से एक ही चार्जर के द्वारा कई कम्पनियों के मोबाइल चार्ज हो सकेंगे।


वर्ल्ड मोबाइल कांफ्रेंस के दौरान जिन कम्पनियों के बीच यू एस बी पोर्ट वाले चार्जर को लेकर समझौता हुआ है उनमे विश्व की नामी-गिरामी मोबाइल कंपनियाँ भी शामिल हैं। इनमें एल जी, मोटोरोला, सैमसंग, सोनी एरिक्सन, नोकिया, वोडाफोन आदि कम्पनियों के नाम प्रमुख हैं।

Wednesday, January 28, 2009

आख़िर क्यों नहीं घटीं ब्याज दरें : मौद्रिक नीति


इस बार भी बैंकों और औद्योगिक संगठनों को रिज़र्व बैंक से काफ़ी उमीदें थीं, लेकिन तीसरी तिमाही की मौद्रिक नीति की समीक्षा में रिज़र्व बैंक ने प्रमुख दरों और अनुपात को यथावत रखते हुए सभी कयासों पर विराम लगा दिया। हालांकि अनुमान ये लगाये जा रहे थे की मुद्रास्फीति में कमी के चलते आरबीआई मौद्रिक नीति के उपकरणों की दरों में बदलाव करेगा। इन सब के बीच अब सवाल यह उठता है की आख़िर क्या कारण है की रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया?
मंत्रालय और प्रधानमन्त्री कि आर्थिक सलाहकार परिषद् ने मार्च तक विकास दर के ७.५-८.० फीसदी रहने का अनुमान लगाया है, लेकिन रिज़र्व बैंक के अनुसार वित्त वर्ष की चौथी तिमाही तक विकास दर के घटकर 7 फीसदी रहने और महंगाई दर घटकर 3 फीसदी तक रहने का अनुमान है। कुल मिलाकर महंगाई दर के आंकडों में लगातार जारी गिरावट के चलते आरबीआई इस बात को लेकर आश्वस्त है कि महंगाई अब नियंत्रण में है और आने वाले समय में इसमे और सुधार होगा, लेकिन इन सबके बावजूद रिज़र्व बैंक जहाँ एक ओर विकास दर के नकारात्मक आंकडों का अनुमान लगा रहा है, वहीँ दूसरी ओर महंगाई दर में कमी के बावजूद ब्याज दरों में परिवर्तन न करने कि बात आसानी से गले नहीं उतरती है। शायद इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि रिज़र्व बैंक का ध्यान अब महंगाई नियंत्रण की तुलना में आर्थिक विकास को गति देने की दिशा में अधिक है, लेकिन आरबीआई द्वारा बाज़ार में पर्याप्त तरलता उपलब्ध कराने के बावजूद कई बैंकों द्वारा ऋण पर ब्याज दरें कम ना करने के कारण कई क्षेत्रों में अब भी मांग की कमी बनी हुयी है। यही वजह है कि उसने बैंकों को साफतौर पर कह दिया है कि उन्हें लोन पर ब्याज दरें घटाना होंगी। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था में मांग और लिक्विडिटी बढ़ाने के लिए केन्द्रीय बैंक ने सितम्बर से लेकर अब तक करीबन 3.88 लाख करोड़ रुपये बाज़ार में डाले हैं। लेकिन इन सबके बावजूद बैंकों के असहयोगात्मक रवैये के चलते ग्राहकों को कम ब्याज दरों पर कर्ज उपलब्ध कराने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए।
कुल मिलाकर रिज़र्व बैंक द्वारा फिलहाल मौद्रिक नीति की समीक्षा में ब्याज दरों में बदलाव न करने का एक कारण ये भी हो सकता है की आगामी लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद सरकार द्वारा राजकोषीय उपाय लागू कर पाना आसान नहीं होगा, ऐसे में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मौद्रिक नीति की आगामी समीक्षा में प्रमुख दरों में कमी देखने को मिल सकती है।

Friday, January 23, 2009

सत्यम को खरीदने की मची होड़


देश के सबसे बड़े कार्पोरेट घोटाले के रूप में सामने आई सॉफ्टवेयर कम्पनी सत्यम कम्प्यूटर्स को खरीदने की होड़ सी मची हुयी है। सत्यम में बेहतर भविष्य देख रही नामी-गिरामी कंपनियाँ इस मौके को हाथों-हाथ भुनाना चाहती हैं। यही वजह है की एक नहीं बल्कि कई कंपनियाँ इसे खरीदने की कतार में हैं। सत्यम को खरीदने में सबसे पहले दिलचस्पी दिखाने वालों में इंजीनियरिंग और निर्माण क्षेत्र की अग्रणी कम्पनी एल एंड टी इन्फोटेक रही, लेकिन सत्यम मामले की जांच के चलते कम्पनी ने अभी कोई अन्तिम फ़ैसला नहीं लिया है। हालांकि एल एंड टी ने सत्यम में अपनी हिस्सेदारी बढाकर १२ फीसदी कर ली है। आउटसोर्सिंग सेवाएं उपलब्ध कराने वाली कम्पनी आईगेट टेक्नोलॉजी और प्रमुख आईटी कम्पनी टेक महिंद्रा भी सत्यम के अधिग्रहण पर विचार कर रही हैं। इसके अलावा सत्यम की बीपीओ इकाई को खरीदने की दौड़ में क्वात्रो बीपीओ सॉल्यूशन भी शामिल हो गई है। एस्सार समूह की बीपीओ फर्म एजिस भी सत्यम के बिज़नस प्रोसेस आउट सोर्सिंग व्यापार को खरीदने का मन बना रही है।
कुछ प्राइवेट इक्विटी निवेशक भी सत्यम को खरीदना चाह रहे हैं, इसके लिए ये भारतीय आईटी कम्पनियों के साथ हाथ मिलाने के मूड में हैं। इनमें टैक्सस पैसिफिक ग्रुप और जनरल एटलांटिक जैसे पीई निवेशक भी शामिल हैं। ऐसा अनुमान है कि आईटी सेक्टर कि बड़ी कम्पनी पटनी कम्प्यूटर्स जनरल एटलांटिक की मदद कर सकती है। कुल मिलाकर कभी देश की चौथी सॉफ्टवेयर कम्पनी रही सत्यम को खरीदने का सुनहरा मौका कोई भी अपने हाथ से गंवाना नहीं चाहता। यही वजह है की कम्पनी की जांच पूरी हुए बिना ही उसके खरीदारों की कतार लगी हुयी है।
हालांकि फिलहाल कम्पनी ला बोर्ड और कार्पोरेट मंत्रालय ने बिना अनुमति सत्यम कम्प्यूटर्स की संपत्ति को बेचने पर रोक लगा रखी है।

Sunday, January 18, 2009

अब सेबी करेगा बही-खातों की जांच


भारत के एनरान घोटाले के रूप में चर्चित हो चुके सत्यम मामले के बाद सेबी की आँखें भी खुल गई हैं। इसी के चलते सेबी (भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड) अब अपने तरीके से कम्पनियों के बही-खातों की जांच करने पर विचार कर रहा है। कम्पनियों द्वारा तिमाही नतीजों की घोषणा के बाद उसके शेयरों के मूल्य में होने वाली अप्रत्याशित बढ़त तथा वे कंपनियाँ जिनकी एक या एक से अधिक सहायक कंपनियाँ हैं, उनके खातों की जांच अब सेबी स्वयं करेगा। पियर रिव्यू के तहत किसी दूसरी ऑडिट फर्म द्वारा खातों की जांच के बाद सेबी अपने स्तर पर उस कम्पनी की बैलेंस शीट जांचेगा, ताकि खातों में होने वाली वित्तीय गड़बडियों को रोका जा सके।

गौरतलब है की बही-खातों में बरती गई भारी अनियमितता के चलते ही सत्यम ने अपनी काल्पनिक संपत्ति को वास्तविक संपत्ति की तुलना में काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया। इसके साथ ही सत्यम के पूरे मामले का पटाक्षेप भी तभी हुआ, जब कम्पनी के प्रमोटर्स ने अपनी ही सहायक कम्पनियों (मेटास इन्फ्रा और मेटास प्राप) को खरीदने की पेशकश की। इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए सेबी अब असामान्य रूप से बढ़ने वाले कम्पनियों के शेयर और प्रमोटर्स की सब्सिडरी कम्पनियों पर कड़ी नज़र रखने जा रहा है। खैर देर से ही सही,लेकिन खातों में की गई राजू की कलाकारी ने सरकार ही नहीं बल्कि सेबी को भी कड़े मानक तय करने पर मजबूर कर दिया है।

Thursday, January 15, 2009

मंदी भी नहीं लगा सकी शौकीनों पर पाबंदी

यूँ तो गुजरे साल के शुरूआती दौर से ही मंदी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, लेकिन साल के मध्य तक यह पूरे श़बाब पर आ गई, और इसका कहर आज तक जारी है। अर्थव्यवस्था की वृद्धि में योगदान देने वाला शायद ही ऐसा कोई सेक्टर बचा हो, जिसे मंदी ने अपनी गिरफ्त में न लिया हो। आर्थिक मंदी के चलते जहाँ एक ओर विभिन्न क्षेत्र की कम्पनियों को मांग में कमी और नकदी की समस्या से दो-चार होना पड़ा वहीँ दूसरी ओर शौकीनों और उनके शौक को पूरा करने लिए उत्पाद बनाने वाली कम्पनियों के आगे तो मंदी की भी एक नहीं चली। जिन उद्योगों के आगे मंदी ने भी अपने घुटने टेक दिए वो कोई और नहीं बल्कि शराब और सिगरेट हैं। अगर शराब उद्योग के आंकडों पर गौर करें तो वर्ष 2007 के 12 फीसदी की तुलना में बीते साल इसकी वृद्धि दर 20 फीसदी के आसपास रही। शौकीनों के उस्ताद और "लिकर किंग" के नाम से मशहूर विजय माल्या का तो यहाँ तक कहना है की लिकर इंडस्ट्री मंदी प्रूफ़ है। तम्बाकू से बने उत्पाद और सिगरेट बनाने वाली नामचीन कम्पनी आईटीसी ने साल 2008 की पहली तिमाही की तुलना में दूसरी तिमाही में पाँच फीसदी की बढोत्तरी करते हुए मंदी में भी मुनाफा कमाया है।
मंदी से अप्रभावित रहते हुए जिस एक और सेक्टर ने धूम मचाई है, वो है प्लेजर इंडस्ट्री । प्लेजर इंडस्ट्री से आशय कंडोम और सेक्स सम्बन्धी उत्पाद बनाने वाली कम्पनियों से है, जिनकी बिक्री में पिछले साल की तुलना में भले ही ज्यादा फर्क न पड़ा हो, लेकिन मंदी के बावजूद शौकीन और आम लोगों में जागरूकता देखी गई। यही वजह रही कि इसकी मांग और बिक्री बनी रही।
मतलब मंदी के बावजूद भी ये वो सेक्टर हैं, जिनका प्रदर्शन साल 2007 की तुलना में बेहतर रहा है, और इसके पीछे कोई तर्क नहीं बल्कि सच्चाई है, कि लोग आज भी शौक और आदतों को लेकर कोई समझौता नहीं करना चाहते, चाहे फिर मंदी हो या महंगाई क्या फर्क पड़ता है।

Wednesday, January 14, 2009

आख़िर कैसे मिलेगा निवेशकों को न्याय?

पिछले कई सालों से फर्जी साख के आधार पर निवेशकों का पैसा डकार रही "सत्यम कम्प्यूटर्स" का भंडाफोड़ तो हो गया, लेकिन क्या इससे उन लोगों को न्याय मिलेगा जो अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई इस कम्पनी में इस विश्वास से लगाते रहे कि आगे चलकर उन्हें इसका बेहतर प्रतिफल मिलेगा। लंबे समय से खाताबही में फर्जीवाडा करते आ रहे सत्यम के चेयरमैन रामालिंगा राजू कि गिरफ्तारी तो निवेशकों का पैसा नहीं लौटा सकती। हालांकि मंदी और महंगाई से जूझ रहे आम निवेशकों को न्याय दिलाने के लिए सरकार अब हाथ-पैर मार रही है, इसी के चलते उसने सत्यम के नए बोर्ड का गठन किया है। इसके अलावा व्यावसायिक अपराधों की जांच करने वाली सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टीगेशन को भी सत्यम में हुयी वित्तीय अनियमितता की जांच करने को कहा गया है। बाज़ार नियामक सेबी और रजिस्ट्रार ऑफ़ कम्पनीज ने भी अब अपने-अपने स्तर पर सत्यम कि जांच शुरू कर दी है। लेकिन इन सबके बावजूद सत्यम में कर्ज के रूप में अपना पैसा निवेश करने वाले संस्थानों और निवेशकों को इस बात कि चिंता खाए जा रही है, कि जांच-पड़ताल और कानूनी कार्रवाई के बाद भी उनके उस पैसे के निकलने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे जिसे राजू पिछले कई सालों से ठिकाने लगाते आ रहे हैं। फिलहाल तो सरकार भी इस मामले पर कन्नी काटती नज़र आ रही है। कम्पनी कि साख बचाने और उसे आर्थिक सहायता प्रदान करने पर सरकार विचार तो कर रही है, लेकिन उसका कहना है कि कम्पनी में पैदा हुयी मुसीबतों और हालातों का अच्छी तरह जायजा लेने के बाद ही हम किसी नतीजे पर पहुंचेंगे। और तो और जब तक पूरी तरह से कम्पनी पर अपराध साबित नहीं हो जाता तब तक सरकार भी उसकी संपत्तियों को बेचकर ऋणदाताओं और निवेशकों का पैसा नहीं लौटा सकती। कुल मिलाकर कम्पनी के घोटालों और सरकार की जांच के बीच निवेशक को फिलहाल अपने पैसे लौटने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है।
ऐसे में सत्यम रुपी भंवर में डूब चुकी निवेशकों की कमाई और भारतीय कार्पोरेट सेक्टर की साख को बचाने के लिए सरकार को संतुलित और पुख्ता कदम उठाने की आवश्यकता है। साथ ही निवेशकों को भी थोड़ा धैर्य रखने की जरूरत है, क्योंकि "घोटालों की जांच में थोड़ा वक्त तो लगता है...

Tuesday, January 6, 2009

चीनी के बढ़ते दामों से सरकार चिंतित

आगामी लोकसभा चुनावों को देखते हुए सरकार जहाँ एक और महंगाई को काबू करने में लगी है, वहीँ दूसरी ओर चीनी की कीमतों में हो रही बढोत्तरी परेशानी का सबब बनती जा रही है। सरकार की इस परेशानी को बढ़ाने में ट्रांसपोर्टर्स की हड़ताल ने तो जैसे कोढ़ में खाज का काम किया है।
पिछले कुछ महीनों से चीनी के दाम 20-21 रुपये/किलो चल रहे हैं, और आने वाले समय में इसके दाम 10 रुपये/किलो तक बढ़ सकते हैं। चीनी के दामों में हो रही बढोत्तरी से चिंतित सरकार अब कुछ कड़े कदम उठाने पर विचार कर रही है , जिसके चलते चीनी कम्पनियों को निर्यात के लिए रिलीज़ आर्डर का इस्तेमाल न करने की मनाही हो सकती है। इसके साथ ही सरकार रिलीज़ आर्डर सिस्टम के तहत होने वाले चीनी निर्यात पर भी नज़र रखेगी। जिसमे चीनी निर्यात के लिए खाद्य मंत्रालय से अनुमति लेने की जरूरत होती है। पिछले कुछ समय से चीनी के दामों में हो रही लगातार वृद्धि के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ रहा है, ताकि निर्यात कम कर चीनी की आपूर्ति बढाई जा सके। बाज़ार में चीनी की पर्याप्त आपूर्ति होने पर उसके दाम में निश्चित रूप से कमी आएगी। लेकिन इन सब उपायों के बावजूद हाल ही में हुयी ट्रांसपोर्टरों की हड़ताल ने सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया है, और ऐसे में चीनी की कीमत कम होने की उम्मीद कम ही है। खैर अब देखना ये है की आख़िर सरकार चीनी के निर्यात में कमी लाकर इसकी बढती हुयी कीमत पर कैसे काबू पाती है।

बीमा कम्पनियों को मिला नए साल का तोहफा


मंदी के चलते नए कस्टमर की किल्लत से जूझ रही बीमा कम्पनियों को राहत देते हुए इरडा (बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण) ने यूलिप योजनाओं पर लगने वाला साल्वेंसी मार्जिन घटा दिया है। यूलिप के लिए साल्वेंसी मार्जिन में हुयी कमी के कारण अब बीमा कंपनियाँ करोडों रुपये की बचत कर सकती हैं, इस बचत का उपयोग वो किसी अन्य जगह निवेश कर लाभ के रूप में भी कर सकती हैं। साथ ही बीमा कंपनियाँ इस बचत के माध्यम से अपनी दूसरी योजनाओं जैसे पेंशन प्लान, मेडीक्लेम आदि का विस्तार भी कर सकती हैं। इरडा द्वारा साल्वेंसी मार्जिन में की गई कमी से अब बीमा कम्पनियों को नए व्यवसाय में सुविधा होगी, क्योंकि उनके पास पूँजी की पर्याप्तता होगी। इसके अलावा कम्पनियों पर अतिरिक्त पूँजी प्रबंधन का दवाब भी घटेगा।
इस तरह नए साल में इरडा ने बीमा कम्पनियों को साल्वेंसी मार्जिन में कटौती का तोहफा दिया है। लेकिन बीमा कंपनियाँ अगर अपने ग्राहकों को अपनी योजनाओं में लिए जाने वाले अतिरिक्त चार्जेस (प्रभार) को कम करेंगी, तो इस तोहफे का लाभ उनके साथ-साथ उनके कस्टमर्स को भी मिल सकेगा। इसके साथ ही नए कस्टमर्स यूलिप प्लान्स की ओर आकर्षित भी होंगे। मतलब कुल मिलकर यह है की इरडा द्वारा मिली इस सौगात को बीमा कंपनियाँ अपने कस्टमर्स के साथ बांटकर अपने लाभ को बेहतर तरीके से भुना सकती हैं।